सिन्धु घाटी सभ्यता के खोजकर्ता
पिछली पोस्ट में हमने सिन्धु घाटी सभ्यता की कुछ बातें की थी| उसी क्रम में अब हम आगे बढ़ते हैं|1856 में जब कराची से लाहौर तक रेलवे लाइन बिछाई जा रही थी तब यहाँ पर ईंटों की आपूर्ति के लिए कुछ खंडरों की खुदाई की गयी| जॉन विलियम ब्रन्टम जो इस प्रोजेक्ट के मुख्य निर्देशक थे को यहाँ बसी किसी सभ्यता का आभास हुआ और उन्होंने इसके बारें में पुरातत्व विभाग से बात की|
इस अज्ञात सभ्यता की खोज का श्रेय रायबहादुर दयाराम साहनी को जाता हैं क्योंकि उन्होंने ही सर्वप्रथम सर जॉन मार्शल की अगुवाई में इस स्थल की 1921 में खुदाई शुरू की थी| फिर इसका लगातार उत्खन्न चलता रहा| जिसकी सूची निम्न प्रकार हैं:-
- हड़प्पा की खुदाई सन 1921 में रावी नदी घाटी के किनारे माधो स्वरूप वत्स और दयाराम साहनी के निर्देशन में हुई|
- मोहनजोदारो की खुदाई सन 1922 में सिन्धु नदी घाटी के किनारे राखाल दास बनर्जी के निर्देशन में हुआ|
- सुत्कागेनडोर की खुदाई सन 1927 में दाश्त नदी घाटी के किनारे ऑरेल स्टाइन और जार्ज एफ. डेल्स के निर्देशन में हुआ|
- चन्हूदड़ों की खुदाई सन 1931 में एन.गोपाल मजूमदार के निर्देशन में हुआ|
- रंगपुर की खुदाई पहली बार सन 1931 में मदर नदी घाटी के किनारे माधोस्वरूप वत्स के निर्देशन में और दूसरी बार सन 1953 में रंगनाथ राव के निर्देशन में हुआ|
- रोपड़ की खुदाई सन 1953 में सतलुज नदी घाटी के किनारे यज्ञदत्त शर्मा के निर्देशन में हुआ|
- कालीबंगा की खुदाई सन 1953 में घग्घर नदी घाटी के किनारे ब्रजवासी लाल और अमलानन्द घोष के निर्देशन में हुआ|
- कोटदीजी की खुदाई सन 1953 में सिंधु नदी घाटी के किनारे फज़ल अहमद के निर्देशन में हुआ|
- लोथल की खुदाई सन 1954 में भोगवा नदी घाटी के किनारे ए. रंगनाथ राव के निर्देशन में हुआ|
- आलमगीरपुर की खुदाई सन 1958 में हिन्डन नदी घाटी के किनारे यज्ञदत्त शर्मा के निर्देशन में हुआ|
- सूरकोटदा की खुदाई सन 1964 में जगपति जोशी के निर्देशन में हुआ|
- बणावली की खुदाई सन 1973 में रवीन्द्र सिंह विष्ट के निर्देशन में हुआ|
सभ्यता के विभिन्न काल
बेशक सिन्धु घाटी सभ्यता एक बहुत ही पुरानी नदी घाटी सभ्यता हैं| हर एक विद्वान् ने खुदाई से मिले साक्ष्यों के आधार पर इसका काल निर्धारण किया हैं| पर ये उतना ही विवादास्पद हैं जितना कि वहाँ की सभ्यता के निर्माता और निवासी| हर एक पुरातत्ववेता की अलग-अलग राय हैं| सर जॉन मार्शल ने 1931 में इस सभ्यता का काल 3,250 ई.पू. से 2,750 ई.पू. के मध्य का तय किया| जिसका मुख्य आधार मेसोपोटामिया में 'उर' और 'किश' स्थलों पर पाइ गइ हड़प्पाई मुद्राएँ थी|काल निर्धारण की रेडियो एक्टिव विधि से सम्पूर्ण सभ्यता के काल को निम्न प्रकार निर्धारित किया गया:-
- पूर्व हड़प्पाई चरण:- लगभग 3,500-2,600 ई.पू.
- परिपक्व हड़प्पाई चरण:- लगभग 2,600-1,900 ई.पू.
- उत्तर हड़प्पाई चरण:- लगभग 1,900-1,300 ई.पू.
इस बारें में और भी बहुत सारे पुरातत्वविदों ने अपनी राय दी हैं और काल निर्धारण किया हैं जो निम्न हैं:-
- पुरातत्वविद माधोस्वरूप वत्स के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता 3,500ई.पू. - 2,700 ई.पू. अपनी विकसित अवस्था में थी|
- पुरातत्वविद जॉन मार्शल के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता 3,250 ई.पू. - 2,750 ई.पू. अपनी विकसित अवस्था में थी|
- पुरातत्वविद डेल्स के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता 2,900 ई.पू. - 1,900 ई.पू. अपनी विकसित अवस्था में थी|
- पुरातत्वविद अर्नेस्ट मैके के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता 2,800 ई.पू. - 1,500 ई.पू. अपनी विकसित अवस्था में थी|
- पुरातत्वविद मार्टीमर ह्यीलर के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता 2,500 ई.पू. - 1,500 ई.पू. अपनी विकसित अवस्था में थी|
- पुरातत्वविद सी.जे. गैड के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता 2,350 ई.पू. - 1,700 ई.पू. अपनी विकसित अवस्था में थी|
- पुरातत्वविद डी.पी. अग्रवाल के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता 2,350 ई.पू. - 1,750 ई.पू. अपनी विकसित अवस्था में थी|
- पुरातत्वविद फेयर सर्विस के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता 2,000 ई.पू. - 1,500 ई.पू. अपनी विकसित अवस्था में थी|
सिन्धु घाटी सभ्यता के निर्माता
चूँकि इस सभ्यता के बारें में बहुत कुछ जानने के बाद भी यहीं लगता हैं कि आज भी हम अनजान हैं| इसकी खास वजह हैं खास साक्ष्यों का ना मिल पाना| मजे की बात यह हैं कि इस सभ्यता के बारें में आज तक के हर पुरातत्ववेत्ताओं की राय अलग-अलग हैं| इसी क्रम में सिन्धु घाटी सभ्यता के निवासियों का मूल भी आता हैं| कि उनका मूल क्या था? उनका वर्ण, जाति इत्यादि सब आज भी अज्ञात हैं| इस बारें में पुरातत्ववेत्ताओं की अलग-अलग राय हैं:-'डॉ. लक्ष्मण स्वरूप' और 'रामचन्द्र' का मानना हैं की सिन्धु घाटी सभ्यता के निर्माता और निवासी दोनों ही वैदिक सभ्यता के समान आर्य थे|
'गार्डन चाइल्ड' का मानना हैं कि ये लोग सुमेरियन सभ्यता के लोग ही थे| जो प्रवास काल के दौरान यहाँ आये थे|
'राखालदास बनर्जी' मानते हैं की ये लोग द्रविड़ियन थे|
'हवीलर' ऋग्वेद का प्रमाण देते हुए कहते हैं कि ये लोग दस्यु एवं ‘दास‘ वर्ण के लोग थे|
'डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी' के कुछ भी कहने से मना किया हैं| उनका कहना हैं कि 'ऐतिहासिक ज्ञान की इस सीमा पर खड़े होकर अभी इस विषय पर हमारा मौन ही सराह्य और उचित है'|
नगर निर्माण
सिन्धु घाटी सभ्यता अपने नगर-नियोजन के लिए दुनिया भर में में प्रसिद्ध हैं| यहाँ की सड़के चौड़ी और सपाट हैं| जो कि पक्की ईंटो से बनी गयी हैं| सम्पूर्ण नगर को जाल के रूप में विन्यासित किया गया हैं| मतलब कि यहाँ की हर सड़क एक-दूसरी को समकोण पर काटती हैं| घरों के दरवाजे गलियों के अन्दर खुलते हैं| मुख्य सड़क की तरफ मकानों की पीठ हैं| घरों से निकलने वाले गंदे पानी के निकास की समुचित व्यवस्था के लिए पक्की ईंटों से बनी नालियों का प्रयोग किया गया हैं| जो मुख्य सड़क के पास आकर नाले से मिलती हैं| हर एक नाली और नाले को ईंटों से ढका गया हैं| नगर अनेक आयताकार खंडो में विभक्त था और ये बात सिन्धु घाटी की हर बस्ती पर लागु होती थी चाहे हो वो छोटी हो या बड़ी|मोहनजोदारो में एक सार्वजिनक स्नानागार मिला हैं| जिसका मुख्य जल स्त्रोत हैं एक कुआ| जो की दुर्ग वाले किले के अन्दर हैं| यह स्नानागार पक्की ईंटों के स्थापत्य का एक उत्कृष्ट नमूना हैं| यह 11.88 मीटर लंबा, 7.01 मीटर चौड़ा और 2.43 मीटर गहरा है। स्नानागार से दोनों सिरों पर तल तक जाने के लिए सीढ़ियाँ बनाई गयी हैं| स्नानागार का फर्श भी ईंटो से बना हैं| और गंदे पानी की निकासी के लिए एक निर्गम हैं| स्नानागार में पानी पास बने हौज से आता हैं| कुए से पानी निकालकर हौज में डाला गता हैं| और हौज में बने निर्गम से ये पानी स्नानागार में आता हैं| स्नानागार के बगल में कपड़े बदलने के लिए कमरे बनाये गए हैं| निश्चित रूप से यह स्नानागार धार्मिक अनुष्ठानों के लिए बनाया गया होगा|
मोहनजोदारो की सबसे बड़ी संरचना हैं एक कोठार| जो 45.71 मीटर लंबा और 15.23 मीटर चौड़ा है। हड़प्पा के दुर्ग में दो लाइनों में छ:-छ: कोठार मिले हैं जिनमे हर एक कोठार 15.23 मी. लंबा तथा 6.09 मी. चौड़ा है| इनका कुल क्षेत्रफल लगभग 838.125 वर्ग मी. है जो मोहनजोदड़ो के कोठार के सामान ही हैं| कोठारों के दक्षिण में खुला फर्श हैं और ईंटों के वृताकार चबूतरे बने हैं| इन चबूतरों की दरारों से गेहूँ और जौ के दाने मिले हैं जिससे स्पष्ट होता हैं कि जरुर इन चबूतरों पर फसल की दवनी होती होगी| हड़प्पा में दो कमरों वाले बैरक भी मिले हैं जो शायद मजदूरों के रहने के लिए बने थे। कालीबंगा में भी नगर के दक्षिण भाग में ईंटों के चबूतरे बने हैं जो शायद कोठारों के लिए बने होंगे। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि कोठार हड़प्पा संस्कृति के अभिन्न अंग थे।
इतने बड़े-बड़े कोठार देखकर लगता हैं कि यहाँ का शासक कर वसूली और सैन्य व्यवस्था करने में निपुण होते होंगे|
सिन्धु घाटी सभ्यता समकालीन सभी सभ्यताओं के बेहतर इसलिए भी साबित होती हैं क्योंकि समकालीन मिश्र में सिर्फ धूप में सूखी ईंटों का इस्तेमाल किया गया था तो मेसोपेटामिया में पक्की ईंटों का प्रयोग तो मिलता हैं| पर इतने बड़े पैमाने पर नहीं, जितना की सिन्धु घाटी सभ्यता में मिला हैं|
दुर्ग
मोहनजोदारों के पश्चिनी टीलें पर सुरक्षा हेतु एक किले का निर्माण किया गया हैं| जिसकी उत्तर से दक्षिण में लम्बाई 460 गज हैं और पूर्व से पश्चिम की तरफ 215 गज दुरी तक फैला हैं| दुर्ग के चारों तरफ एक 45 फीट चौड़ी सुरक्षा दीवार हैं| जिस पर जगह-जगह फाटक और रक्षक गृह बनायें गए हैं| दुर्ग के मुख्य द्वार उत्तर और दक्षिण में हैं| उत्तरी द्वार के बाहर 18 वृताकार चबूतरे बने हुए हैं| जिनका व्यास 3.2 मीटर हैं|अर्थव्यवस्था
सिन्धु घाटी सभ्यता की अर्थव्यवस्था के मुख्य स्तम्भ थे कृषि और पशुपालन, क्षेत्रीय उद्योग-धंधे और विदेशों के साथ होने वाला व्यापार| जिसके अंदाज खुदाई में मिले साक्ष्यों से लगाया जाता हैं|कृषि
पूर्व(पहले का) सिंध आज की तुलना में बहुत अधिक उपजाऊ था और एक कृषि प्रधान क्षेत्र था| इसकी उपजाऊता का मुख्य कारण था यहाँ की प्राकृतिक वन-सम्पदा| जिस कारण यहाँ बारिश भी खूब होती थी| जिस वजह से सिंध में हर साल बाढ़ आती थी और यही बाढ़ मैदानी भागों को उपजाऊ बनाने में मदद करती थी| इसके तौर पर शहर के बाहर बनी पकी ईंटों की दीवार को देखा जाता हैं जो इस बात की इंगित करती हैं कि यहाँ हर साल बाढ़ आती थी| ये लोग बाढ़ का पानी उतर जाने के बाद वहाँ पर फसल बो देते थे और अगली साल बाढ़ आने से पहले यानि कि अप्रैल में फसल काट लेते थे| ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में सिकंदर के एक इतिहासकार ने लिखा था कि सिंध एक बहुत ही उपजाऊ भूमिखंड हैं|बाद में मिट्टी से बनी ईंटों को पकाने के लिए वनों को जलाया जाने लगा| इमारतों को खड़ा करने के लिए धीरे-धीरे वन-सम्पदा का अँधा-धुंध दोहन शुरू कर दिया गया और वन धीरे-धीरे समाप्त होने लगे|
वस्तुत: यहाँ पर यहाँ कोई फावड़ा या फाल नहीं मिला है लेकिन कालीबंगा की खुदाई के दौरान कूँट (हलरेखा) मिले हैं उनसे आभास होता है कि राजस्थान में इस काल में हल जोते जाते थे।
यहाँ मिले मुख्य बीजों गेहूँ और जौ के साथ-साथ राई, मटर और ज्वार हैं| इसके साथ ही इन लोगों को तिल, सरसों और कपास की खेती का भी ज्ञान था|
यूनानी लोग सिन्धु सभ्यता के लोगो के लिए sindon(सिन्डन) शब्द का प्रयोग करते थे|
पशुपालन
सिन्धु घाटी की खुदाई में कृषि के साथ ही पशुपालन के भी अवशेष मिले हैं| सिन्धु घाटी के लोग बैल-गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सूअर पालते थे। बड़े जानवरों में ये लोग हाथी और गेंडे से भी परिचित थे|उद्योग-धंधे
यहाँ के नगरों में काफी उद्योग धंधे थे और वो उन्नत भी थे| यहाँ के लोग मिटटी के बर्तन बनाने में कुशल थे और साथ ही उन बर्तनों पर काले रंग की चित्रकारी करने में भी| कपड़े का व्यवसाय भी उन्नत था और यहाँ से कपड़े निर्यात करने के पुख्ता सबूत भी मिले हैं| यहाँ की खुदाई में मिले गहनों से साबित होता हैं कि यहाँ जौहरी का काम भी होता था| इन सब के अलावा यहाँ मनके और ताबीज बनाने का काम भी बड़े पैमाने पर होता था|यहाँ लोहें की कोई चीज नहीं मिली हैं जिससे ये साबित होता हैं कि ये लोग लोहे को नहीं जानते थे|
व्यापार
सिन्धु घाटी सभ्यता एक उन्नत सभ्यता थी और इनकी अर्थव्यवस्था भी मजबूत थी| जिसका मुख्य कारण था विदेशों के साथ व्यापार और विदेशों में वाणिज्यिक उपनिवेश| यहाँ के लोग पत्थर से बने औजार, धातु और शल्क(हड्डियों) आदि का व्यापर करते थे| खुदाई से एक बड़े भू-भाग में ढेर सारी मुद्राएँ(सील), एकरूप लिपि और मानकीकृत माप तौल मिले हैं। ये लोग चक्के (पहिए) से परिचित थे और आज के समय के रथ जैसे किसी वाहन का प्रयोग करते थे| जिसे इक्का कहा जाता था| व्यापार में सहूलियत के लिए इन्होने उत्तरी अफगानिस्तान में एक वाणिज्यिक उपनिवेश स्थापित किया| जिससे की व्यापार में सहूलियत हो सके| इसके साथ ही ये अफ़ग़ानिस्तान और ईरान (फ़ारस) से भी व्यापार करते थे। मेसोपोटामिया से भी इनका व्यापारिक सम्बन्ध था जिसका सबसे बड़ा सबूत मेसोपोटामिया में मिली हड्प्पाई सील हैं| मेसोपोटामिया के अभिलेखों में मेलुहा(संभवत: मोहनजोदारो के लिए प्रयोग किया गया होगा) के साथ व्यापार के प्रमाण मिले हैं| साथ ही दो मध्यवर्ती व्यापार केन्द्रों का भी उल्लेख मिलता है - दलमुन और माकन। दिलमुन की पहचान शायद फ़ारस की खाड़ी के बहरीन के की जा सकती है।जीवन व्यवस्था
ये तो सर्वमान्य हैं कि सिन्धु घाटी सभ्यता एक विकसित सभ्यता थी| तो जाहिर सी बात हैं कि वहाँ की जीवन व्यवस्था भी काफी अच्छी ही रही होगी| पर इस बात के बारें में कुछ खास कहा नहीं जा सकता हैं| हम सिन्धु घाटी सभ्यता के जीवन को दो भागों में विभक्त करके पढ़ते हैं| धार्मिक जीवन और राजनैतिक जीवन|धार्मिक जीवन
खुदाई के वक्त हड़प्पा से बहुत बड़ी मात्र में मिट्टी की बनी स्त्री की मुर्तिया प्राप्त हुई हैं| उन्ही में से एक मूर्ति में स्त्री के गर्भ से पौधा निकलता हुआ दिखाया गया हैं| मुख्य विचारधारा के पुरात्त्वेता इसे पृथ्वी की मूर्ति मानते हैं और तर्क देते हैं कि सिन्धु सभ्यता के लोग धरती को उर्वरकता की देवी मानते थे और इस मूर्ति का सम्बन्ध पौधों के जन्म और वृद्धि से हैं| ये लोग इसकी पूजा करते थे| जिस तरह प्राचीन मिस्र के लोग नील नदी की देवी आइसिस की पूजा करते थे| पर ये कहना मुश्किल हैं कि यहाँ का समाज की प्राचीन मिस्र की ही तरह मातृसतात्मक था| कुछ वैदिक सूक्तों में पृथ्वी माता की स्तुति जरुर हैं| धोलावीरा की खुदाई के समय एक कुआ मिला जिसमे लगी सीढियों में एक खिड़की हैं और वहां दीपक जलाये जाने के सबूत मिले हैं| उस कुए में सरस्वती नदी का पानी आता था तो मुमकिन हैं कि ये लोग सरस्वती की पूजा करते हो|सिन्धू घाटी में एक योगी की मूर्ति मिली हैं जिसके तीन या चार मुँह हैं| पुरात्त्वेताओं का मानना हैं कि ये योगी शिव हैं| इसके मुख्य स्त्रोत के रूप में सिन्धु की सीमा से जुड़ा आज के मेवाड़ को देखा जाता हैं| जहां आज भी चार मुँह वाले शिव के रूप एकलिंगनाथ जी की पूजा की जाती हैं|
कुछ जैन और बौद्ध धर्म के विद्वान मानते हैं कि सिन्धु घाटी सभ्यता बौद्ध या जैन धर्म से जुडी रही होगी पर मुख्य विचारधारा के विद्वान इसे सीरे से नकार देते हैं क्योंकि इस बात के पुख्ता सबूत नहीं हैं|
कुछ विद्वानों का मानना हैं कि हिन्दू धर्म द्रविड़ों का मूल धर्म था और शिव इनके देवता थे| बाद में आर्यों ने भी इन्हें अपना लिया था और पूजा करने लगे थे|
प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया में कई मंदिरों के अवशेष मिले है पर सिन्धु घाटी में आज तक कोई मंदिर नहीं मिला| जो इस बात की ओर इशारा करते हैं कि सिंधु घाटी के लोग अपने घरो में, खेतो में या नदी किनारे पूजा किया करते थे| इस बात से काफी पुरात्त्वेता सहमत भी हैं| सिन्धु सभ्यता में मिला बृहत्स्नानागार या विशाल स्नानघर उनका धार्मिक अनुष्ठानों के वक्त पवित्र होने के लिए बनाया गया होगा| जिस प्रकार आज की गंगा नदी के घाट|
लोथल, कालीबंगा आदि जगहों पर हवन कुंड मिले है जो की उनके वैदिक होने का प्रमाण है। स्वस्तिक चिह्न भी सिन्धु घाटी की ही देन हैं| ये चिह्न इन लोगों का पवित्र चिह्न हुआ करता था|
सिन्धु सभ्यता के लोग शवों को जलाया करते थे| क्योंकि एक अनुमान के अनुसार सिन्धु की कुल जनसँख्या 50 हजार के आस-पास थी फिर भी वहाँ से केवल सौ के आस-पास ही कब्रें मिली हैं|
राजनैतिक जीवन
सिन्धु घाटी एक विकसित सभ्यता थी| जिसके प्रमाण हैं विशाल स्नानागार, पकी सड़के और मकान, दुर्ग, उन्नत उद्योग-धंधे और व्यापारिक उपनिवेश| संभवत: ये सब किसी बड़ी राजनैतिक सत्ता की बिना हो पाना संभव नहीं हैं| परन्तु यहाँ के शासनकाल के बारें में स्पष्ट नहीं कहा जा सकता हैं| जैसे कि यहाँ की शासन प्रणाली क्या थी? शासक कैसे और कौन थे? लेकिन नगर व्यवस्था को देखकर लगता है कि कोई नगर निगम जैसी स्थानीय स्वशासन प्रणाली रही होगी।शिल्प और तकनिकी ज्ञान
सिन्धु घाटी की अगर शिल्प और तकनीक की बात की जाये तो यहाँ के लोग मुख्यत: पत्थर से बने औजार काम में लेते थे और कांसे का भी प्रयोग करते थे| कांसे को टिन और तांबे के मिश्रण से बनाया जाता था| हालाँकि ये दोनों ही खनिज यहाँ प्रचुर मात्रा में नहीं मिलते हैं| यहाँ लोग नाव बनाना जानते थे| सूती कपड़ो की बुनाई की जाती थी| मुद्रा निर्माण, मूर्ति निर्माण और बर्तन बनाए जाते थे| मनको और ताबीजों से सुन्दर आभूषण बनाना भी जानते थे|प्राचीन मेसोपोटामिया की तरह यहाँ के लोगों ने भी अपनी लिपि विकसित की| जिसका पहला नमूना 1853 ईस्वी में पाया गया| 1923 तक ये पूरी लिपि खोजी जा चुकी थी| परन्तु आज तक इसको पढ़ा नहीं जा सका हैं|
लिपि का ज्ञान हो जाने के कारण निजी सम्पति का लेखा-जोखा किया जाने लगा| माप-तौल के लिए बांटो का प्रयोग शुरू हुआ| तौल के लिए ये लोग 16 या उसके आवर्तकों का (जैसे - 16, 32, 48, 64, 160, 320, 640 इत्यादि) का प्रयोग करते थे| कमाल की बात ये हैं कि आज भी सम्पूर्ण भारत में यही पद्धति काम में ली जाति हैं| जैसे की एक रुपये में 16 आने| 1 किलो में 4 पाँव और हर एक पाँव में 4 कनवां यानि कि 1 किलो में 16 कनवां|
सभ्यता का पतन
जिस तरह इस सभ्यता के उत्थान के बारे में अलग-अलग विद्वानों की अलग-अलग राय हैं वही हाल पतन के बारे में भी हैं| आज तक ये बात साबित नहीं हो पाई हैं कि इस उन्नत सभ्यता के विनाश का कारण क्या रहा होगा? इसके पीछे विभिन्न तर्क दिए जाते हैं जैसे कि:- बर्बर आक्रमण, जलवायु परिवर्तन एवं पारिस्थितिक असंतुलन, बाढ तथा भू-तात्विक परिवर्तन, महामारी, आर्थिक कारण। पर यहाँ की नगर और जल निकास व्यवस्था देखकर महामारी कि सम्भावना बिलकुल कम लगती हैं| जो सभ्यता व्यापार में और उपनिवेश में निपुण थी वहाँ पतन का आर्थिक कारण भी बिल्कुल सही साबित नहीं होता हैं| पर भीषण अग्निकान्ड के भी प्रमाण प्राप्त हुए है। साथ ही मोहनजोदारो के एक कमरे से 14 नर कंकाल मिले है जो आक्रमण, आगजनी, महामारी के संकेत हो सकते है।ऐसा लगता है कि इस सभ्यता का पतन किसी एक कारण नहीं था बल्कि विभिन्न कारणों के मेल से ऐसा हुआ।
सिन्धु सभ्यता की खुदाई से मिली कुछ मूर्तियों का संग्रह
सिंधु घाटी सभ्यता के नगर में स्थित एक कुआँ और स्नान घर |
सिन्धु घाटी सभ्यता से मिले पवित्र स्वस्तिक निशान
सिन्धु घाटी से मिली कांसे से बनी एक नर्तकी की मूर्ति |
मोहेनजोदाड़ो में पाई गई एक मूर्ति - कराँची के राष्ट्रीय संग्रहालय से |
सिन्धु-सरस्वती सभ्यता के दस वर्ण जो धोलावीरा के उत्तरी गेट से मिले |
सिन्धु घाटी सभ्यता से मिली बैल की मूर्ति |
लोथाल स्थित प्राचीन नगर में स्थित एक नाली |
लाल मिट्टी से बने एक पात्र के अवशेष |
अनुष्ठानों या समारोहों में प्रयुक्त होने वाला पात्र |
3 comments
Write commentsयह जानकारी काफी रोचक है ,परंतु पुरातत्ववेता द्वारा धार्मिक स्वरूप स्पष्ट नहीं किया गया है लेकिन एक शब्द अवश्य प्रयोग मे लाया गया है कि आर्यों ने इस सभ्यता का पतन किया होगा ।
Replyएक दूसरी बात यह बताई गई. है कि सिन्धु सभ्यता के लोग पत्थर के औजार का प्रयोग करते थे आभूषण भी बनाते थे, कांसे का सामान भी बनाते थे लेकिन लोहे के बारे मे सबूत नहीं मिला है।
कृषि कार्य से सम्बंधित ,हल ,मिला गेहूँ जौ इत्यादी के बीज मिले ,सडके नालियां मकान परकोटे आदि आदि,पूजा की मूर्ती चार मुखवाली स्त्री के.पेट से निकलता हुआ पेड ।और कुआँ मे सीढी तथा सरस्वती नदी का अनुमान लगाया गया है।कपड़ें भी बनाए जाते थे ,जब इतनी. विकसित सभ्यता थी तो लोहे का प्रमाण नहीं ये सोचनीय बात है ।
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